Friday

डाँ. कुंअर बेचैन...

कुछ और शेर...

दो चार बार हम कभी हस हँसा लिए,
सारे
जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए |
रहते हमारे पास तो ये टूटते ज़रूर,
अच्छा
किया जो आपने सपने चुरा लिए ||

दुनिया ने मुझपे फेके थे पत्थर जो बेहिसाब |
मेने उन्ही को जोड़ के कोई घर बना लिए ||

कहाँ वो नई गहिरायाँ हसने हँसाने में,
मिलेंगी जो किसी के साथ दो आंसू बहने में |
तुम आये तो खुशी आई लेकिन हसूं अभी केसे ,
कुछ देर तो लगती है रो कर मुस्कराने में ||

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Is poetry realy live in todays fast running life?

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