अंगुलियाँ थाम के... | |
अंगुलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आंखों से मैने खुद रो के बहुत देर हंसाया था जिसे छू के होंठों को मेरे मुझसे बहुत दूर गयी वो ग़जल मैने बड़े शौक से गाया था जिसे मुझसे नाराज़ है इक शख्स़ का नकली चेहरा धूप में आइना इक रोज़ दिखाया था जिसे अब बड़ा हो के मेरे सर पे चढ़ा आता है अपने कांधे पे कुंअर हंस के बिठाया था जिसे | |
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Monday
डाँ. कुंअर बेचैन...
Posted by chitransh at 1:30 PM
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