Saturday

निदा फ़ाज़ली...

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता,
कहीं ज़मी तो कहीं आसमा नहीं मिलता


जिसे भी देखिये वो अपने आप में ग़ु है
,
जुबा मिली है मगर हम जुबा नहीं मिलता


बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
,
ये ऐसी आग है जिसमे धुआं नहीं मिलता

तेरे जहां में ऐसा नहीं के प्यार हो
,
जहा उम्मीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता



1 comments:

Udan Tashtari said...

आभार निदा फ़ाज़ली साहेब की इस उम्दा गज़ल को पढ़वाने का.

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Is poetry realy live in todays fast running life?

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