कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता,
कहीं ज़मी तो कहीं आसमा नहीं मिलता ।
जिसे भी देखिये वो अपने आप में ग़ुम है,
जुबा मिली है मगर हम जुबा नहीं मिलता ।
बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले,
ये ऐसी आग है जिसमे धुआं नहीं मिलता ।
तेरे जहां में ऐसा नहीं के प्यार न हो,
जहा उम्मीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता ।
Saturday
निदा फ़ाज़ली...
Posted by chitransh at 10:47 AM
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1 comments:
आभार निदा फ़ाज़ली साहेब की इस उम्दा गज़ल को पढ़वाने का.
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